Satah Se Uthata Admi (1980)
Director: Mani Kaul; Writer: Mani Kaul; Producer: Mani Kaul; Cinematographer: Virendra Saini; Cast: Gopi, M.K. Raina, Vibhuti Jha, Kulbhushan Billori, Satyen Kumar
Duration: 01:45:57; Aspect Ratio: 1.324:1; Hue: 273.699; Saturation: 0.175; Lightness: 0.204; Volume: 0.233; Cuts per Minute: 4.369; Words per Minute: 53.575
Summary: Kaul’s film addresses the writings of Gajanan Madhav Muktibodh (1917-69), one of the main representatives of the Nai Kavita (New Poetry) movement in Hindi (Tar Saptak, 1943; Chanda Ka Mooh Tedha Hai, 1954). Muktibodh also wrote several short stories, one of which (1971) provides the film with its title, and critical essays. The film integrates episodes from Muktibodh’s writings with material from other sources, including a reinvented neo-realism derived from Muktibodh’s literary settings. The narrative is constructed around three characters. Ramesh (Gopi) is the one who speaks and enacts Muktibodh’s writings, functioning as the first-person voice of the text; his two friends, Madhav (Jha) and Keshav (Raina), are Ramesh’s antagonists and interlocutors esp. in the debates about modernity. Kaul gradually minimises the fictional settings until, in the remarkably shot sequences of the factory, the audience is directly confronted with the written text itself. Kaul had begun his studies of Dhrupad music, the classical North Indian music known mainly for its extreme austerity, and derived a number of cinematic styles from this musical idiom which have influenced all his films since: e.g. the continuously mobile camera, the use of changing light patterns and the importance of improvisation.
As If
Andhere Me (poem)
जिंदगी के...
कमरों में अँधेरे
लगाता है चक्कर
कोई एक लगातार;
आवाज पैरों की देती है सुनाई
बार-बार... बार-बार,
वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,
किंतु वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि-सा
अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक,
और मेरे हृदय की धक्-धक्
पूछती है - वह कौन
सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !
इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
फूले हुए पलस्तर,
खिरती है चूने-भरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह -
खुद-ब-खुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर,
नुकीली नाक और
भव्य ललाट है,
दृढ़ हनु
कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।
कौन वह दिखाई जो देता, पर
वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।
प्रश्न थे गंभीर, शायद खतरनाक भी,
इसी लिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी -
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सजा दी !
andhere me (poem)
कहता है - "पार करो पर्वत-संधि के गह्वर,
रस्सी के पुल पर चलकर
दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुँचो"
अरे भाई, मुझे नहीं चाहिए शिखरों की यात्रा,
मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से
बजने दो साँकल!!
उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,
वह जन - वैसे ही
आप चला जायेगा आया था जैसा।
खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा
पीड़ाएँ समेटे !
क्या करूँ क्या नहीं करूँ मुझे बताओ,
इस तम-शून्य में तैरती है जगत्-समीक्षा
की हुई उसकी
(सह नहीं सकता)
विवेक-विक्षोभ महान् उसका
तम-अंतराल में (सह नहीं सकता)
अँधियारे मुझमें द्युति-आकृति-सा
भविष्य का नक्शा दिया हुआ उसका
सह नहीं सकता !
नहीं, नहीं, उसको छोड़ नहीं सकूँगा,
सहना पड़े - मुझे चाहे जो भले ही।
Andhere me ( poem )
सूनी है राह, अजीब है फैलाव,
सर्द अँधेरा।
ढीली आँखों से देखते हैं विश्व
उदास तारे।
हर बार सोच और हर बार अफसोस
हर बार फिक्र
के कारण बढे हुए दर्द का मानो कि दूर वहाँ, दूर वहाँ
अँधियारा पीपल देता है पहरा।
हवाओं की निःसंग लहरों में काँपती
कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज,
टकराती रहती सियारों की ध्वनियों से।
काँपती हैं दूरियाँ, गूँजते हैं फासले
(बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर)
Gandhi
lake
walking
film music
leaving factory
railway tracks
Housing1
Muktibodh and his comrades awaiting K.A. Abbas's 'Last Page' in the Blitz.
Abbas
Blitz
communist
bird
train
art theory
poetry
Muktibodh
press photographs
photograph
The image is not just the visible, the text is not just the sayable...
thesis7
Indiancine.ma requires JavaScript.